समलौण, बूढ़ा रथुवाढ़ाब। आज से कोई पैंतीस साल पुराने रथुवाढ़ाब (रथ्वाढाब) की कहानी आज आपके सामने खास कर उन युवाओं के लिए जिन्होनें नये नवेले रथुवाढाब को देखा है। तब यहां ईंटो के मकान नही थे एक आध कोई रहा हो तो स्मृति में नही आता तब कोटद्वार से सिद्धखाल के लिए गढ़वाल मण्डल आनर्स यूनियन लिमिटेड (जीएमओयू) की बस चला करती थी जो सुबह दस बजकर तीस मिनट पर कोटद्वार से चलती थी तथा लगभग दो बजे रथुवाढाब मे रुकती थी।
दूसरे दिन सुबह सात आठ बजे के लगभग सिद्धखाल से चलकर लगभग सुबह दस बजे ग्यारह बजे वहीं रथुवाढाब में पंहुचती थी और आते जाते लगभग तीस मिनट वहां रुकती थी तब वहां पण्डित आनन्दमणी जी के होटल में बस के चालक परिचालक का भोजन तैयार रहता था।

बाकी बस के सवारी चाय बिस्कुट खा कर थकान मिटाते थे आनन्दमणी भाई जी बेहद मिलनसार व्यक्ति थे तो सबसे अधिक उनकी दुकान पर रहती थी, तब उस दौर में कश्मीर के खानाबदोश मुसलमान गुर्जर मैदावन, बतनवासा, मुंडियापानी तथा रथुवाढ़ाब के आसपास कार्बेट पार्क के जंगलो में बसावट कर चुके थे।
इनका दूध रथुवाढाब के सभी चाय की दुकान चलाने वाले खरीदते थे जिसमें आनन्दमणी भाई से लेकर श्री महेशानन्द जी, कुमाल्डी गांव के नेगी जी और सबसे ऊपर एक नेपाली जिनकी चाय की दुकान सबसे ऊपर झर्त के दीपू भाई जी की दुकान के पास थी सभी चाय की दुकान वाले बस की सवारियों के इंतजार में रहते थे रथुवाढ़ाब झर्त, कुमाल्डी तथा आस पास के गांव के लोगों के लिए दैनिक जीवन की खाद्य वस्तुओं के लिए एक छोटा सा बाजार भी था।
समलौणः बूढ़ा रथुवाढ़ाब
जहां कुमाल्डी गांव निवासी श्री दीन दयाल सिंह नेगी जी की परचून की दुकान थी। रथुवाढ़ाब में जब सुबह आप बस में सवार हो पंहुचते थे तो एक सूरदास जी जो शायद रथुवाढ़ाब गांव के ही थे बस में आकर बहुत सुंदर भजन और गढ़वाली गीत गाते थे और यात्री अपनी श्रद्धा से उनके हाथ मे कुछ सिक्के आदि रख देते थे,
मुझे उनका गीत आम की डाली मा घूघुती ना बासा वाला गीत बरबस स्मरण आ जाता था , इसके साथ ही सूरदास जी का घूघूती घू :घू :ती बोलना भी याद आता है यद्यपि बालपन से किशोरावस्था तक आते आते सूरदास जी फिर रथुबाढाव बसों मे आते नही दिखाई दिये।
हां सफेद टोपी मे दो बड़े सफेद बैलों की बैलगाड़ी भी रथुवाढ़ाब में दिखाई देती थी और पहाड़ में बैलगाड़ी सिर्फ रथुवाढाब में ही थी यह बात मै शर्त के साथ कह सकता हूॅ पहाड़ में बैलगाड़ी देख कर लोग अचम्भित भी होते थे और बैलगाड़ी वाले महाशय बड़े आनन्द और गर्व के साथ रथुवाढ़ाब के बाजार से अपनी बैलगाड़ी लेकर गुजरते तो बस की सवारी भी उनकी शाही बैलगाड़ी के आगे फीकी लगती थी।
आज यद्यपि रथुवाढ़ाब में बहुत बदलाव हो चुका है कुछ पुराने दुकानदार आज भी हैं कुछ लोग चले भी गये , एक छोटा सा प्यारा सा बाजार बरबस आज भी याद आता है।