उत्तराखण्ड नाम है एक सभ्यता का एक संस्कृति का जंहा रग रग में धर्म है, आध्यात्म है, देवताओं की इस पावन भूमि में बसे मानव भी अपने पर्व और उत्सवों में ईश्वर की ही आराधना करते हैं उसी परमेश्वर का स्तुति गान करते है इन्हीं पर और उत्सवों में एक पर्व होरी (होली) भी है।

उत्तराखंड की संस्कृति और सभ्यता में होली का त्यौहार
उत्तराखंड की संस्कृति और सभ्यता में होली का त्यौहार, रंगो का यह पर्व भगवान नारायण की लीलाओं का होरी ( होली) गीतों के माध्यम से गायन उत्तराखण्ड के गढ़वाल , कुमांऊ तथा जौनसार क्षेत्रवासियों द्वारा बेहद उत्साह और उमंग के साथ मनाया जाता है जिसमें सादगी का विशेष महत्व होता है।
इसके साथ ही अपने रीति रिवाजों और मर्यादाओं का पूरा ध्यान रखा जाता है। होरी (होली) के पर्व पर होल्यारों की मदमस्त टोली भगवान नारायण के गीत और लीलाओं का बखान करते घर घर होली खेलते हैं यह एक अद्भुत अवसर होता है।
पहाड़ों में होली के पंरपरागत गीत
पहाड़ों में होली के पंरपरागत गीतों में – हर हर पीपलपात जय देवी आदि भवानी, मत मारो मोहनलाला पिचकारी काहे को तेरो रंग बनो है काहे की तेरी पिचकारी,लाल गुलाल को रंग बनो है हरिया बांस की पिचकारी। नारायण तुमने धरा नरसिंह अवतार भक्त प्रहलाद की की रक्षा हिरणकश्यप को मार गिराया भक्त को निहाल कराया।
जल कैंसे भरूं यमुना गहरी ठाड़े भरूं राजा राम देखत हैं सीधे भरू जल । हम होरी वाले दे माता दीक्षा, खोलो किवाड़ चलो मत भीतर, दर्शन दीज्यो आज जै अम्बे आज भवानी।एक से बढ़कर एक होरी (होली) के मनमोहक गीत साथ ही भक्ति रस और होली के आनन्द में साराबोर हो होल्यारों की टोली के शानदार नृत्य दर्शकों को फाल्गुन के मौसम में बासन्ती रंग में साराबोर कर देते हैं।
आज यद्यपि पलायन ने पहाड़ों को खाली किया है वह रौनक और वह उत्साह मन्द जरूर हुआ है लेकिन रुका नही है आज भी पहाड़ के उत्साही युवा अपनी संस्कृति के ध्वजवाहक बन होरी गायन और छरवाली (धुलहंडी) को उसी उत्साह से मना रहे है उसी ठसक के साथ। अजय तिवाड़ी